न मौत की खबर सुन कर
रद्दे अमल ज़ाहिर करने वाले
इंसानी जानों का नुकसान
होता है
एक दिचास्प वाकिया
या महज़ एक खबर
अगर
मरने वाला ताल्लुक रखता हो
दूसरे कबीले से
हैरत है
कि दर्द की भी कौम होती है?
और आंसुओं का भी मज़हब?
अगर इज़हार ए ग़म के लिए
ज़रूरी है
हादसे के शिकार लोगों का हम मज़हब होना
तो बेहतर है
कि हम मजहबों को
उठा कर फ़ेंक दें समंदर में
ताकि
इंसानों कि तरह
इंसानों कि मौत पर
रो तो सकें
(नज़्म----डॉ आमिर रियाज़)

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